
एक संत था। संत फ्रांसिस उसका नाम था।वह बहुत बीमार हो गया था।लग रहा था कि उसका अंत समय आ गया था।
और वह मरते वक्त उन सब को ,चीज को, धन्यवाद देना चाहता था। जो उसके जीवन में कभी भी काम आई थी।
सबसे पहले उसने उस गधे को धन्यवाद करने का सोचा। जो उसको रोज कहीं ना कहीं लेकर जाता था। और उसने उसके ऊपर बैठकर बहुत यात्राएं की थी।
इसलिए अनेक बार वे उस गधे के साथ बहुत सारी यात्राओं पर दूर दूर गया था।उसने उसको धन्यवाद करने का सोचा।
उठने में उसे बहुत तकलीफ थी।वह उठ भी नहीं पा रहा था। बहुत अधिक बीमार था। जब उठ रहा था तो उसके मित्रों ने कहा यह क्या करते हो?
उसने कहा नहीं नहीं यह ठीक नहीं होगा कि मैं मरने से पहले अगर गधे को धन्यवाद ना बोलूं।
मुझे बहुत सारी यात्राओं पर लेकर गया है। और मरते वक्त में चार कदम भी उसके लिए चलकर ना जाऊं धन्यवाद देने के लिए यह मेरे से नहीं होगा। मुझे जाना पड़ेगा।
और वह गया। लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई। और वह गधे को अपने हृदय से लगाए हुए थे।
और कह रहा थे। क्षमा कर दो मुझे तुम मेरे सच्चे दोस्त हो।
ना मालूम मैं कितनी बार तुम्हारे लिए बहुत कठोर हो गया।
ना मालूम मैंने तुम्हें कितनी बार अपशब्द कहे।
ना मालूम मैंने तुम्हें कितनी बार कष्ट से चलाया। जब तुम चलने के लायक भी नहीं थे।
जब तुम चलना भी नहीं चाहते थे। तुम्हारी सामर्थ भी नहीं थी चलने की।
ना मालूम कितनी कितनी भूले की गई होंगी।
उन सब का हिसाब रखना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। पर मैं सबके लिए क्षमा मांगता हूं।
और मेरे सबसे बड़े मित्रों में से तुम्ही एक मेरे सच्चे मित्र हो। और वह मौन हो गया।
तुम हमेशा चुप रहे।
तुमने कुछ नहीं बोला।
हमेशा मेरा साथ दिया।
कभी इंकार भी नहीं किया।
कभी झगड़ा भी नहीं किया।
पर मैं आज बिदा हो रहा हूं।शायद दुनिया छोड़ रहा हूँ।इसलिए आज मैं तुमसे क्षमा मांगता हूं। मुझे क्षमा कर दो।
लोग कहने लगे मालूम होता है कि संत का दिमाग आखिर में जाते वक्त खराब हो गया है।
लोग उनसे कहने लगे क्या कर रहे हो ?
ऐसे क्यों माफी मांग रहे हो ?
यह क्या कर रहे हो ?
फिर उसने डंडे को भी धन्यवाद दिया। क्योंकि वह उसे भी हाथ में लेकर चलता था।वह भी उसको सहारा देता था।
पर हम उस को पागल समझ रहे हैं। ऐसे पागल ही परमात्मा तक पहुंचने में समर्थ होते हैं। जिनके मन में इतना प्रेम है,करुणा है, जिनके हृदय में इतना अनुग्रह का भाव है।
जो दूसरे के हुए कृतज्ञ रहते हैं। उनके हृदय का पत्थर टूट जाएगा। और इससे जो भी धारा बहेगी निश्चित फल है।
एक बार बह जाए तो वह सागर तक चली जाएगी।
लेकिन हम तो पत्थर से भी ज्यादा मजबूत हो गए।और हमने नए सीमेंट और कंक्रीट और ईंट की दीवार खड़ी कर ली है।
उसका एक ही कारण है। इसलिए हम अपने को बांटने में और बहाने में डरते है। अपने अंदर से करुणा को बाहर निकालने में भी डरते है।
और अपनी करुणा को अंदर ही जप्त करके रखना चाहते है।इसलिए हम पत्थर से भी ज्यादा सख्त है।कब करुणा को अंदर से बाहर बहने देंगे।
संदर्भ by Osho