
हर व्यक्ति की यही तमन्ना हें की उसके अपने उसके पास हों।
बिना अपनों के खुशियाँ खुशी नहीं लगती।और उनका आनन्द भी नहीं आता।
अपनों का होना हर एक की ज़िंदगी में जरूरी हें। परंतु सवाल यह उठता हें।
की कैसे पता चले की कौन अपना हें।और कितनाअपना हें।
अगर ज़िंदगी में देखें तो सबसे बड़ी हार अपनों से ही होती हें।
हम परायों से तो जीत सकते हें पर अपनों से हार जाते हें।
मुझे वह मेरे अपने पिक्चर का गाना बहुत पसंद हें।
“कोई होता जिसको अपना हम अपना कह लेते यारों।
पास नहीं तो दूर ही होता लेकिन कोई मेरा अपना।”
मेरे अपने ही तो हैं।
हाँ यह सब मेरे अपने हैं।
जो खुशियों में खुश होते हैं।
दुखों में साथ खड़े होकर,
अपने होने का एहसास दिलाते हैं।
हाँ यह सब मेरे अपने हैं।
पर कैसे जाने पहचानो,
यह कितने अपने कितने पराये।
यह मैं कैसे अब मानूँ,
न कोई यंत्र दिखाई देता है।
ना कोई मशीन बना कर देता है।
ऊपर वाले ने अपनों को,
जांचने और परखने को,
वक्त की याद दिलाई है।
वक्त ही बता सकता हें।
कौन अपना और कौन पराया,
वक्त ने कैसा खेल रचाया।
वक्त अच्छा था तो साथ खड़े,
बुरा वक्त आते ही दूर खड़े।
कोई मांग ना ले, जान ना ले,
जो चाहिए वह दे सकते हैं।
गलती से समझ ना ले,
इसलिए दूर हो जाते हैं।
नाटक करके अपनेपन का,
सब कैसे बदल जाते हैं।
अब तो बदलने में,
पल भी नहीं लगता उनको,
जरा नजर फिरी इधर से,
फटाफट उधर दौड़ जाते हैं।
फिर भी कहने को अपने हैं।
कैसे पल में नजर चुरा जाते हैं।
बात करो तो वक्त,
की कमी बताते हैं।
कष्ट बताओ तो,
बाद में बात करते हैं।
कह कर फोन,
कट कर देते हैं।
वक्त का अभाव बताकर,
पल्ला कैसे झाड़ लेते हैं।
कैसे समझाऊं कि,
मेरे कितने अपने हैं।
पर मायूस ना हो,ना परेशान,
यह निर्णय आपका है श्रीमान।
किसको अपना,किसको पराया,
मानना है,या जानना है।
जैसे मानेंगे,बनायेंगे,
वैसी कामना है।
बिना मतलब से बने,
रिश्ते अपने होते हैं।
मतलब आते ही,
पराए हो जाते हैं।