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वो शहर मेरा पुराना सा


वह शहर मेरा पुराना सा,

जहां हम रहा करते थे।

तीन चौक की हवेली थी,

वही हम सब खेला करते थे।

नलों में पानी नहीं आता था,

रोज दूर से लाना पड़ता।

पानी भरते भरते हम सब,

कम पानी खर्च करा करते थे।

वह शहर मेरा पुराना सा ,

जहां हम रहा करते थे।

गेहूं पिसाने को मुझे ,

आधा किलोमीटर जाना पड़ता।

सिर पर उठा कर गरम-गरम,

फिर वापस भी लाना पड़ता।

सब्जी मंडी दूर बड़ी थी,

रोजाना जब जाते थे।

कंधे पर सब्जी का थेला ,

आके बहुत थक जाते थे।

जब भी पूछे भाव किसी का ,

आसमान छू जाते थे।

लेने जाते थे चार सब्जी ,

लेकिन दो ही लेकर आते थे।

स्कूल जाते थे पैदल ही,

रिक्शे में ना जा सकते थे।

बैग भी बहुत भारी था ,

और कंधे भी थक जाते थे।

शाम को 7:00 बजे तक हम,

बिस्तर छत पर लगाते थे।

जल्दी से बिस्तर पर जाकर,

तारे देखने लग जाते थे।

वह खुली हवा और खुला,

आसमान को देखा करते थे।

टूटी खिड़की, टूटे किवाड़,

हमें ही झांका करते थे।

वह मेरा शहर पुराना सा ,

जहां हम रहा करते थे।

बस्ता था पुराने कपड़ों का,

किताबें भी पुरानी ले लेते थे।

मतलब तो सिर्फ पढ़ने से था ,

उसकी चिंता नहीं करते थे।

ना थे ख्वाब सुनहरे हमारे,

ना ही कोई इच्छा थी।

जरूरतें पूरी हो जाए ,

हम शुक्र उन्हीं का करते थे ।

वह शहर मेरा पुराना सा,

जहां हम रहा करते थे।


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