
जब घर आई एक लड़की ,
काम मांगने के लिए ।
कुछ अलहड़ सी शरमाई सी।
पर लगी काम की ,घर के लिए।
जब मैंने पूछा, पहले कहीं काम किया है।
बोली जब 10 साल की थी ,
तब से ही किया है।
अपने और चार भाई बहनों को ,
खाना तभी मिलता है ।
जब मैं और मेरी मां काम करे,
तब घर का चूल्हा जलता है।
देख कर उसकी और,
मेरा दिल धक से रह जाता है।
क्या उम्र है ज़िम्मेदारी की,
पसीना निकल आता है ।
इतनी सी उम्र और इतना काम ,

फिर भी कर लेती है।
फिक्र अभी से परिवार की है,
वह सब सह लेती है ।
सुबह से लेकर रात तक,
सब के नखरे उठाती है।
नखरे करने की उसकी उम्र,
कभी भूल ही जाती है ।
जरा सी गलती होने पर,
हर एक की डांट सुनती है ।
अकेले किसी कोने में जाकर,
चुपके से रोने लगती है।
कोई भी यह ना समझता,
दिल उनका मर जाता है,
उस बच्ची की मेहनत पर ,
उन्हें जरा तरस नहीं आता है ।
कभी भी उसे यह नहीं कहते ,

रहने दे तू भी थक गई होगी ।
अब रहने दे की याद नहीं होगी,
सोचते नहीं ,इंसान का दिल भी नहीं ।
अमीर हों पर प्यार नहीं ,
फिर क्यों ना बताते ,
उसके बारे में सोच ना पाते।
उसका मासूम सा चेहरा देख,
कभी दर्द ना उनको होता हैँ।
अपना बच्चा बच्चा लगता है ,
उसके लिए कुछ ना होता।
जिस दिन वह काम छोड़ देती ,
तुम मिन्नत उसकी करते हो ,
घुटनों पर बैठकर अपने,
फिर उसकी सारी बातें,
कबूल कर लेते हो।
सोचा करो उसके बारे में ,
जो काम मांगने आई थी।
तुम्हारे लिए कुछ न सही,
पर सपने तो वह भी साथ लाई थी।
ऊंची और बड़े घर वालों के,
दिल भी बड़े होंगे ,
उनके पास बहुत कुछ हैँ।
अच्छे से मुझे रहने देंगे।
पर भूल जाती है, बड़े घर को ।
उनका दिल कभी का मर जाता है ।
फिक्र ना उन्हें किसी की होती ,
सिर्फ अपना स्वार्थी भाता है ।
भगवान करे इस दुनिया में,
ऐसी ना कोई मजबूरी हो ,
भरपेट मिले भोजन सबको।
न ज़िम्मेदारी की मजबूरी हो।