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ज़िंदगी और माफी



ज़िंदगी और माफी

एक जर्मन विचारक था।जापान एक फकीर से मिलने गया।वह बहुत जल्दी में था।

उसने उसके दरवाजे पर जाकर जूता उतारा।और जोर से पटक दिया।और फिर जोर से दरवाजे को धक्का दिया।उस कमरे तक पहुंच गया जहां फकीर था।


और उस फकीर को उसने नमस्कार किया।


और बोला देखो में थोड़ा जल्दी में हूं। आपसे कुछ पूछने आया हूं।


फकीर को उसका यह व्यवहार बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। फकीर ने कहा बातचीत तो हम बाद में करेंगे। पहले दरवाजे के साथ जो तुमने दुर्व्यवहार किया है। उसके लिए उससे माफी मांग कर आओ।


और वह जूते जो तुमने इतने क्रोध से उतारे हैं।और उन्हें फेंक कर आये हो। उससे जाकर क्षमा मांग कर आओ।


यह इसलिए क्योंकि मैं यह नहीं पसंद करता। नहीं नहीं यह नहीं हो सकता। यह दुर्व्यवहार मुझे पसंद नहीं है।

पहले माफी मांग कर आओ। फिर अंदर आना। तभी हम कुछ बात कर सकते हैं। तुम तो अभी जूते से भी बात करना नहीं जानते।और अभी तो तुम दरवाजे से भी व्यवहार करना नहीं जानते।


तो तुम आदमी से बात कैसे करोगे।परंतु उसके पास बिल्कुल भी वक्त नहीं था। और बात करना जरूरी था।वह चाहता था।


उसको बहुत बुरा लगा कि मेरे पास वक्त नहीं है। और इसको वक्त का कोई अंदाज ही नहीं है।


क्या पागलपन की बात है?


लेकिन मिलना बहुत जरूरी था। और जो आदमी है वह बात करने को राजी नहीं है। अब क्या करें?


मजबूरी में उसने दरवाजे पर जाकर माफी मांग ली। उस दरवाजे से माफी मांगी।


फिर उसने जूते से भी माफी मांग ली।और वह अपने देश जर्मनी वापिस लौट आया।


अपने घर वापस जाकर उसने लिखा कि मैंने जब माफी मांगी।तब मुझे ऐसा एहसास होता जैसा जीवन में कभी नहीं हुआ। जैसे अचानक कोई बोध मेरे मन में उतर आया। जैसे एक हल्कापन, एक शांति मेरे मन के अंदर दौड़ आई।


मेरे को यह बहुत बड़ा पागलपन लगता था। परंतु फिर मेरे को पीछे ख्याल आया कि ठीक ही तो है।


इतने क्रोध में, इतने आवेश में,अगर मैं फकीर से मिलता भी तो मैं क्या समझता?


क्या सुनता?

मुझे कुछ समझ भी नहीं आता। और फिर लौट कर आकर वह हंसने लगा। और कहने लगा क्षमा करना पहले तो मुझे बिल्कुल पागलपन लग रहा था कि मैं माफी मांगू।


मैं दरवाजे से माफी मांगू। लेकिन फिर मुझे ख्याल आया कि जब मैं जूते और दरवाजे पर नाराज हो सकता हूँ।उनके ऊपर गुस्सा कर सकता हूं ।


माफी क्यों नहीं मांग सकता।


परंतु हमें अपने जीवन की शुरुआत इन जड़ चीजों से ही करनी चाहिए। जो चीज हमारे आस पास रहती हैं। उन्हीं से करनी चाहिए।


ज़िंदगी को धन्यवाद


हमें पत्थर पर 3 घंटे बैठे गए और जब हम वहां से उठे तो हमने उसको धन्यवाद भी नहीं किया।


उसके पास जो पेड़ लगे हुए थे उनको धन्यवाद भी नहीं किया कि उन्होंने हमें इतनी छाया दी।


उस समुद्र के निकट से लौटते वक्त आप धन्यवाद दीजिए इस जगह को कभी भी नहीं भूलेंगे और धन्यवाद देकर जाइए।

ऐसा मत करिए कि ऐसे ही जगह को छोड़ दें। और चल पड़े।तो वह वृक्ष क्या सोचेंगे ?

कैसे लोग हैं?

वह समुद्र क्या कहेगा?

कैसे लोग हैं?


3 दिन तक पास थे। उनके लिए गर्जन किया। नाचा लौटते वक्त धन्यवाद भी नहीं दे कर गए।


क्या करेगी यह पूरी पृथ्वी जब आप जीवन से विदा लेंगे।


क्या कहेगा यह पूरा जीवन?

क्या कहेगा यह सूरज?

क्या कहेगी हवाएं कि 70 वर्ष तक प्राण शक्ति दी।और जाते वक्त तुम ने धन्यवाद भी नहीं दिया।


सोचिए यह सोचने का वक्त है।जो परमपिता परमात्मा ने दिया है।उसके शुक्रगुजार तो होईये।


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