
जब भी यह शब्द दिल में या जुबान पर आता है। तो एक अलग ही एहसास सा दिल में जाग जाता है।
कौन किसकी कितनी परवाह करता है।यह हर एक को बखूबी समझ आता है। चाहे बच्चा हो या बड़ा हो या बुजुर्ग क्योंकि परवाह दिखाई देती है। महसूस की जाती है। दिल को दिल से जोड़ती है।
कई पति-पत्नी का झगड़ा तो इस परवाह की वजह से होता रहता है।वे कहती हैं। तुम्हें तो मेरी परवाह ही नहीं।मेरी तबीयत ठीक नहीं है।पर तुम्हें इससे क्या?
इसी तरह की शिकायत होती हैं कि मुझे किस समय क्या परेशानी है?
कहां गई वह परवाह कि मुझे क्या चाहिए ?
तुम्हें इस बात की भी कोई परवाह नहीं।पति की अलग शिकायतें हैं। वह भी अपने परिवार को लेकर उतना ही परेशान है। जितना उसकी धर्मपत्नी है। उसे भी वही परवाह चाहिए। तुम्हारा दिन कैसा बीता?
तुम भी बहुत थक जाते हो। चलो मैं तुम्हारे लिए एक गर्म प्याली चाय की अदरक वाली बनाकर लाती हूं।तुरंत तुम्हारी थकान दूर हो जाएगी। और फिर पूरे शरीर में एक ताजगी आ जाएगी।
क्या आपने देखा परवाह के लिए कुछ विशेष नहीं करना पड़ता ?
बस छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना पड़ता है।
उस बात का आप ध्यान रखते हो।यह एहसास दिलाना होता है।यही सच्ची परवाह है।
साथ में आप जिस की परवाह करते हो उसे यह पता तो होना चाहिए कि आप उसकी कितनी परवाह करते हैं। यह बताना भी जरूरी है।
अब हम बात करते हैं
अपने घर के बुजुर्गों की। हम उनकी कितनी परवाह करते हैं। या उनकी ओर से बिल्कुल बेपरवाह हो गए हैं।
यह एक सोचने का विषय है।जब हम बच्चे थे।तब हमारे ही चारों और ही उनकी दुनिया होती थी।और वह हर वक्त हमारी ही परवाह करते थे।
हमारे खाने की, सोने की, पढ़ने की, संभलने की, गिरने की, उठने की, यह सब बातों का ध्यान ही हमारी परवाह ही तो है।
पर आज जब उनको उन्हीं सब बातों में,अपने लिए जिंदगी में यही सब जरूरत हैं। तो क्या हम उनके साथ हैं?
क्या हम उनकी इतनी परवाह करते हैं जितनी कभी उन्होंने हमारी की थी?

बचपन तो छोड़िए जनाब बच्चे 40- 50 साल के भी हो जाए तो भी माता-पिता उनकी परवाह करना नहीं छोड़ते ।
पर माता-पिता बुजुर्ग हो जाए तो बच्चे कैसे परवाह को बेपरवाह में बदल देते हैं। बेपरवाह में बदलना, चाहे अन्जाने में ही करते हों।परंतु कर देते हैं।
यह हम अक्सर अपने समाज में देखते हैं। लोगों के घरों में देखते हैं।
आज भी मुझे वह घटना याद आ जाती है। जब हम बस्सी में नवनीत प्राकृतिक चिकित्सालय में गए थे।
वहां हम जब रह रहे थे।एक व्यक्ति जयपुर से आया हुआ था। साथ में उसके दो नोंकर भी वहीं रहते थे।
वह नोकर उनका ध्यान रखने के लिए थे। हम रोज देखते थे। मालिश कराने लाने के लिए, खाना खिलाने के लिए,निहलाने के लिए भी उन्हें रोज जबरदस्ती ले जाते थे।
वह खाना भी नहीं खाते थे। किसी से बोलते भी नहीं थे। बस अपने कमरे में गुमसुम बैठे रहते थे।
एक दिन हमने सोचा कि क्यों ना उनसे पूछा जाए उन्हें परेशानी क्या है?
तब नौकरों ने बताया उनका जयपुर में अच्छा कारोबार है। पर यह ना खा रहे थे। ना किसी से बोल रहे थे। इसलिए इनके बेटों ने इन्हें यहां भेज है।
वे कभी कभी मिलने आते हैं।जब हमने उनसे बात की ।तो पहले तो बहुत देर तक वह बोले ही नहीं। फिर किसी बात पर हमने उन्हें एक चुटकुला सुनाया।उस पर वह भी हंस पड़ें ।
फिर क्या था यह फुर्ती से उठे।और उन्होंने अकबर बीरबल के बहुत सारे चुटकुले सुनाए। और वह अब बिल्कुल ठीक हो गए।
और उन्हें अब नहाने और खाने के लिए जबरदस्ती नहीं ले जाना पड़ता था।
अगर बिल्कुल ठीक हैं तो यह ध्यान रखें कि उन्हें किस किस चीज की जरूरत है?
पर जब हम उनके पास गए। उनकी परेशानी का पता लगाया।तब उन्हें लगा किसी को तो उनकी परवाह है।यह बात दिमाग तक पहुंची।और वह ठीक महसूस करने लगे।
अधिकतर जगह पर बच्चे अपने माता-पिता के लिए नौकर रख कर उनके प्रति बेपरवाही को परवाह समझते हैं।
1.आपके बुजुर्गों को नोकर की नहीं आपके हाथों के स्पर्श की परवाह चाहिए।
2.उनको देखकर आपके चेहरे पर मुस्कुराहट चाहिए।
3.कुछ पल के लिए आपका साथ चाहिए।
वह आपकी सच्ची परवाह है।
परंतु उनके बच्चों ने दो नोंकर रख कर यह सोच लिया कि वह उनकी बहुत परवाह कर रहे हैं।
उनके घर में शायद उनकी परवाह अब बेपरवाह में बदल गई।जिसे वह सहन नहीं कर पा रहे थे। इसीलिए वह इस तरह का व्यवहार कर रहे थे।
जब आदमी यह सहन नहीं कर पाता।
तब आदमी अपनी जिंदगी से बेजार हो जाता है।
जब उसे एहसास हो कि किसी को उसकी पड़ी ही नहीं कि वह किस हाल में है।किसी को उसकी कोई परवाह ही नहीं कि उसे क्या चाहिए?
लेख लिखने का मकसद सिर्फ जागृत करना है कि आपके घर ही आप के आस पास तो कोई ऐसा नहीं। जिसे आपकी परवाह की जरूरत हो।
और आप उसके प्रति बेपरवाह तो नहीं। या आपका उधर ध्यान ही नहीं हो।
आप अपने परिवार में इस को व्यवहार में ला कर अपने घर में हर वक्त खुशी और खुशहाली ला सकते हैं।
हमेशा परवाह करने वाले बनें ना कि बेपरवाह करने वाले——–
यह विडिओ अवश्य देखें।